कहानी संग्रह >> पंचतन्त्र की कहानियाँ पंचतन्त्र की कहानियाँरामप्रताप त्रिपाठी
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प्रस्तुत है पंचतंत्र की कहानियाँ.....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
पंचतंत्र के रचयिता विष्णु शर्मा का जीवन चरित्र हमें भले ही न ज्ञात हो,
किन्तु उसके व्यक्तित्व पर प्रकाश डालने वाली विपुल सामग्री पंचतंत्र में
विद्यमान है। यह निश्चित है कि वह एक परम बुद्धिमान। पण्डित, निर्लोभ तथा
स्वाभिमानी स्मार्त ब्राह्मण थे, जैसा उन्होंने ग्रन्थारंभ में ही
ब्रह्मा, शिव, कार्तिकेय, विष्णु, वरुण, यमराज, अग्नि, इन्द्र, कुबेर,
चन्द्रमा, सूर्य, सरस्वती, अश्विन कुमार, चण्डिका, प्रभृत आर्य देवताओं को
तथा आर्यों की परम्परा के अनुसार समुद्र, नदी, तीर्थस्थल, वेद, यज्ञादि को
नमस्कार किया है।
विष्णु शर्मा का स्वभाव अत्यन्त उदार, परदुःखकातर तथा स्वाभिमानी था, किन्तु उन्हें छल-छिद्र एवं दम्भ-पाखण्ड की पूरी जानकारी थी। मानव प्रकति के सभी रहस्यों की बात तो जाने दीजिए, वह पशु-पक्षियों तथा कीट-पतंगो के स्वभाव एवं जीवन के भी पारखी थे। यद्यपि उनके इस प्रकार के पात्रों में मानव जीवन की घटनाओं का ही गुम्फन हुआ है, तथापि उनके सहज स्वभाव एवं प्रकृति का चित्रण अत्यन्त सूक्ष्म तथा मनोरंजक है। वह न केवल समग्र शास्त्रों के ही पण्डित थे, वरन् सांसारिक व्यवहारों का भी उन्हें प्रगाढ़ अनुभव था। रणनीति और कूटनीति में भी वह परम निपुण थे।...
पंचतंत्र की कहानियों में पाण्डित्य और हास्यरस का जो अपूर्व समन्वय देखने को मिलता है, उससे ज्ञात होता है कि इसका रचयिता कितना मधुर कथाकार तथा निपुण लेखक था। उसकी तीक्ष्ण बुद्धि राजनीति और कूटनीति की गुत्थियों में जितनी रमती थी, उतनी पाठकों तथा श्रोताओं की सहानुभूति, अभिरुचि, कल्पना एवं मनोरंजन की भावना को तुष्ट करने के लिए प्रयत्नशील रहती थी। उसने एक ऐसी कथा शैली का अविष्कार किया जो आज के युग में भी अनुकरणीय बनी हुई है। उसकी प्रत्येक कहानी स्वयं कहानी के रूप में जितनी मनोहारिणी तथा लोकरंजक है, उतनी ही किसी धर्म-कथा, राजनीति, कूटनीति अथवा सामाजिक हित-चिन्ता का मनोहर दृष्टान्त उपस्थित करने वाली भी है।
विष्णु शर्मा का स्वभाव अत्यन्त उदार, परदुःखकातर तथा स्वाभिमानी था, किन्तु उन्हें छल-छिद्र एवं दम्भ-पाखण्ड की पूरी जानकारी थी। मानव प्रकति के सभी रहस्यों की बात तो जाने दीजिए, वह पशु-पक्षियों तथा कीट-पतंगो के स्वभाव एवं जीवन के भी पारखी थे। यद्यपि उनके इस प्रकार के पात्रों में मानव जीवन की घटनाओं का ही गुम्फन हुआ है, तथापि उनके सहज स्वभाव एवं प्रकृति का चित्रण अत्यन्त सूक्ष्म तथा मनोरंजक है। वह न केवल समग्र शास्त्रों के ही पण्डित थे, वरन् सांसारिक व्यवहारों का भी उन्हें प्रगाढ़ अनुभव था। रणनीति और कूटनीति में भी वह परम निपुण थे।...
पंचतंत्र की कहानियों में पाण्डित्य और हास्यरस का जो अपूर्व समन्वय देखने को मिलता है, उससे ज्ञात होता है कि इसका रचयिता कितना मधुर कथाकार तथा निपुण लेखक था। उसकी तीक्ष्ण बुद्धि राजनीति और कूटनीति की गुत्थियों में जितनी रमती थी, उतनी पाठकों तथा श्रोताओं की सहानुभूति, अभिरुचि, कल्पना एवं मनोरंजन की भावना को तुष्ट करने के लिए प्रयत्नशील रहती थी। उसने एक ऐसी कथा शैली का अविष्कार किया जो आज के युग में भी अनुकरणीय बनी हुई है। उसकी प्रत्येक कहानी स्वयं कहानी के रूप में जितनी मनोहारिणी तथा लोकरंजक है, उतनी ही किसी धर्म-कथा, राजनीति, कूटनीति अथवा सामाजिक हित-चिन्ता का मनोहर दृष्टान्त उपस्थित करने वाली भी है।
निवेदन
विश्व के कथा-साहित्य में ‘पंचतंत्र’ की कथाओं का
अनुपम स्थान
है। यह संस्कृत-साहित्य की ही अनमोल कृति नहीं है। प्रत्युत अन्य प्राचीन
भाषाओं के साहित्य में भी उसे उच्च स्थान प्राप्त है। ये कहानियाँ न केवल
अपनी परम प्राचीनता के कारण ही विख्यात हैं, प्रत्युत विश्व के प्राचीन
कथा-साहित्य की सब प्रकार की शैलियों एवं परम्पराओं का भी इनमें पालन हुआ
है। यद्यपि यह सामान्य लोक-कथाओं का ही एक सुन्दर संग्रह है, तथापि इसकी
रचना का प्रयोजन महान् है। ग्रंथकार की प्रतिज्ञा के अनुसार महिलारोप्य के
राजा अमरशक्ति के तीन परम मूर्ख पुत्रों को केवल 6 महीने में नीतिशास्त्र
के आचार्य वृहस्पति एवं पुराणप्रसिद्ध परम कूटनीतिज्ञ इंद्र को भी पराजित
करनेवाली बुद्धि दिलाने में ये कहानियाँ सफल हुई हैं। यद्यपि इन कहानियों
के पात्र पशु-पक्षी अथवा कीट-पतंगादि अधिक हैं। अपेक्षाकृत मनुष्य कम हैं,
तथापि इनके पात्र पशु-पक्षी अथवा कीट-पतंगादि में भी मानवीय संवेदनाओं का
ही प्रामुख्य है। जैसे सब में मानवीय सहानुभूति घृणा, क्रोध, लोभ, ईर्ष्या
अथवा बदला चुकाने की भावना विद्यमान है।
इसी प्रकार मानवीय राजनीतिज्ञता, कूटबुद्धि, कामुकता, धर्मपरायणता, नीतिमत्ता सामाजिक चेतना अथवा उपकार बुद्धि भी उनमें कूट-कूट कर भरी हुई हैं। मानव-जीवन का कोई भी ऐसा पहलू नहीं दिखाई पड़ता, जो पंचतंत्र की कहानियों में न हो। यह सत्य है कि आधुनिक मनोवैज्ञानिक तथ्यों की यथेष्ट रक्षा इन कहानियों में नहीं हुई है, किन्तु किसी भी भाषा के प्राचीन कथा-साहित्य में इन आधुनिक तथ्यों का समावेश कहाँ हुआ है ? आधुनिक पश्चिम की यथार्थवादी कथाशैली ने स्वाभाविकता एवं मनोवैज्ञानिक सत्यता का जो रंग या ढाँचा हमारे सामने रखा है, उनकी तुलना में प्रचीन कथा-शैली को रखना उचित नहीं है, क्योंकि यह विकास अत्याधुनिक है। किसी भी प्राचीन कथा-साहित्य को लीजिए, उसमें भी पंचतंत्र जैसी ही कथा-शैली मिलेगी। उस प्राचीन कथा-शैली का उद्देश्य होता था-मनोरंजन, कुतूहल और उपदेश।
जबकि आज की कथाओं का उद्देश्य होता है, स्वाभाविक चित्रण अथवा आदर्शोन्मुख यथार्थवाद। एक की दिशा यदि पूर्व है, तो दूसरे की पश्चिम। इन पुरानी मानव-जीवन की समस्त आकांक्षाओं एवं प्रवृत्तियों के शाश्वतिक प्रतिबिम्ब हैं। देश और काल की संकलित सीमा का उनमें तनिक भी प्रभाव नहीं है। जीवन की अजर-अमर लालसाओं का इनमें वह स्वरूप चित्रित हुआ है, जो आज युगों के बाद भी उसी तरह का है, जैसा उस समय रहा होगा। किन्तु आधुनिक यथार्थवादी कहानियों के सम्बन्ध में निश्चयपूर्वक यह नहीं कहा जा सकता कि आज से सौ दो सौ वर्षों के बाद उनका क्या होगा ? इनमें से अधिकांश में वर्णित वस्तुतत्व अथवा समस्याओं का यह रूप उस समय भी स्थिर रहेगा अथवा इन्हें समझने के लिए उस समय के पाठकों को आजकल की सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिस्थितियों का अध्ययन करना पड़ेगा, यह तो भविष्य के गर्भ में है।
इसी प्रकार मानवीय राजनीतिज्ञता, कूटबुद्धि, कामुकता, धर्मपरायणता, नीतिमत्ता सामाजिक चेतना अथवा उपकार बुद्धि भी उनमें कूट-कूट कर भरी हुई हैं। मानव-जीवन का कोई भी ऐसा पहलू नहीं दिखाई पड़ता, जो पंचतंत्र की कहानियों में न हो। यह सत्य है कि आधुनिक मनोवैज्ञानिक तथ्यों की यथेष्ट रक्षा इन कहानियों में नहीं हुई है, किन्तु किसी भी भाषा के प्राचीन कथा-साहित्य में इन आधुनिक तथ्यों का समावेश कहाँ हुआ है ? आधुनिक पश्चिम की यथार्थवादी कथाशैली ने स्वाभाविकता एवं मनोवैज्ञानिक सत्यता का जो रंग या ढाँचा हमारे सामने रखा है, उनकी तुलना में प्रचीन कथा-शैली को रखना उचित नहीं है, क्योंकि यह विकास अत्याधुनिक है। किसी भी प्राचीन कथा-साहित्य को लीजिए, उसमें भी पंचतंत्र जैसी ही कथा-शैली मिलेगी। उस प्राचीन कथा-शैली का उद्देश्य होता था-मनोरंजन, कुतूहल और उपदेश।
जबकि आज की कथाओं का उद्देश्य होता है, स्वाभाविक चित्रण अथवा आदर्शोन्मुख यथार्थवाद। एक की दिशा यदि पूर्व है, तो दूसरे की पश्चिम। इन पुरानी मानव-जीवन की समस्त आकांक्षाओं एवं प्रवृत्तियों के शाश्वतिक प्रतिबिम्ब हैं। देश और काल की संकलित सीमा का उनमें तनिक भी प्रभाव नहीं है। जीवन की अजर-अमर लालसाओं का इनमें वह स्वरूप चित्रित हुआ है, जो आज युगों के बाद भी उसी तरह का है, जैसा उस समय रहा होगा। किन्तु आधुनिक यथार्थवादी कहानियों के सम्बन्ध में निश्चयपूर्वक यह नहीं कहा जा सकता कि आज से सौ दो सौ वर्षों के बाद उनका क्या होगा ? इनमें से अधिकांश में वर्णित वस्तुतत्व अथवा समस्याओं का यह रूप उस समय भी स्थिर रहेगा अथवा इन्हें समझने के लिए उस समय के पाठकों को आजकल की सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिस्थितियों का अध्ययन करना पड़ेगा, यह तो भविष्य के गर्भ में है।
कथाओं की विशेषता
पंचतंत्र की कथाओं की विशेषता सबसे बढ़कर यह है कि वे बहुत छोटी-छोटी हैं,
किन्तु उनमें समाज-नीति, शिक्षा, मनोरंजन और कहानीपन के कुतूहल का
सम्मिश्रण इतने सुन्दर ढंग से हुआ है कि पाठक आनन्दविभोर होकर सब कुछ भूल
जाता है। एक कहानी के भीतर अनेक छोटी-छोटी कहानियों का सम्बन्ध इतनी
निपुणता से जोड़ा गया है कि कहीं अस्वाभाविकता अथवा ऊब को स्थान नहीं
मिलता। यही दशा विविध नीतियों से सम्बन्ध रखनेवाले उन सैकड़ों श्लोकों का
है जो फुटकर रूप में संस्कृत के विशाल वाङ्मय में फैलकर उसकी शोभा बढ़ाते
हैं और इन कहानियों में आकर इनके जीवन-धन हैं। सहस्रों वर्षों की लम्बी
अवधि तक इस विशाल देश की सांस्कृतिक भावधारा में ठोकर खाकर ये श्लोक इतने
चिकने और मनोहर बन गए हैं कि सचमुच उनकी उपमा शालिग्राम की मूर्तियों से
की जा सकती है। गौरवमयी भारतीय संस्कृति का संक्षेप में परिचय देने की
क्षमता कितनी अधिक श्लोकों में है, इसका परिचय अनुभवी ही दे सकते हैं ?
गागर में सागर भरने की उक्ति उन श्लोकों के लिए पूर्णतः सत्य सिद्ध हुई
है। धर्मशास्त्र, राजनीति, आचार, वर्णाश्रम-व्यवस्था, कूटनीति,
समाज-विज्ञान आदि विषयों के अनेक ग्रंथों का निचोड़ उन श्लोकों में भरा
हुआ है और वे ही श्लोक पंचतंत्र की कहानियों में सुन्दर ढंग से इस प्रकार
समलंकृत किए गए हैं कि कहीं भी अस्वाभाविकता अथवा कृत्रिमता का बोध नहीं
होता।
लोकोपयोगिता की दृष्टि से भी इन कहानियों का अनुपम महत्त्व है। यह सत्य है कि आज सहस्रों वर्षों के बाद भी, इन कहानियों में वर्णित परिस्थितियों तथा पात्रों का परिचय प्राप्त करना लाभदायक है। समग्र लोकव्यवहार की शिक्षा देने के लिए अकेला पंचतंत्र आज भी पर्याप्त है और यदि प्राचीन भारतीय मर्यादा अथवा संस्कृति के परिचयार्थ कोई एक पुस्तक पढ़ने के लिए किसी को दी जा सकती है, तो वह पंचतंत्र ही हो सकती है। यही कारण है कि भारतीय संस्कृति के प्रचार एवं प्रसार के साथ ही इस ग्रंथरत्न को भी शताब्दियों से अद्वितीय लोकप्रियता प्राप्त हुई है। इसकी उक्त लोकप्रियता का प्रमाण इसी से बताया जा सकता है कि आज इसकी अद्भुत कहानियों की अपनी प्रतिष्ठा है। भारत की सम्पूर्ण भाषाओं में यदि इसके अनुवाद प्राप्त हैं तो यह कोई बड़ी बात नहीं है, क्योंकि सहस्रों वर्षों से आसेतु हिमाचल हमारे देश में इस पुस्तक की अनुपम प्रतिष्ठा है। खूबी तो यह है कि लगभग चालीस विदेशी भाषाओं में इसके अनुवाद हो चुके हैं और प्रति वर्ष लाखों की संख्या में इसका प्रकाशन होता है। सम्भवत: बाइबिल के बाद यही एक ऐसी पुस्तक है, जिसका इतनी भाषाओं में और इतनी विशाल संख्या में प्रचार और प्रसार हुआ है।
लोकोपयोगिता की दृष्टि से भी इन कहानियों का अनुपम महत्त्व है। यह सत्य है कि आज सहस्रों वर्षों के बाद भी, इन कहानियों में वर्णित परिस्थितियों तथा पात्रों का परिचय प्राप्त करना लाभदायक है। समग्र लोकव्यवहार की शिक्षा देने के लिए अकेला पंचतंत्र आज भी पर्याप्त है और यदि प्राचीन भारतीय मर्यादा अथवा संस्कृति के परिचयार्थ कोई एक पुस्तक पढ़ने के लिए किसी को दी जा सकती है, तो वह पंचतंत्र ही हो सकती है। यही कारण है कि भारतीय संस्कृति के प्रचार एवं प्रसार के साथ ही इस ग्रंथरत्न को भी शताब्दियों से अद्वितीय लोकप्रियता प्राप्त हुई है। इसकी उक्त लोकप्रियता का प्रमाण इसी से बताया जा सकता है कि आज इसकी अद्भुत कहानियों की अपनी प्रतिष्ठा है। भारत की सम्पूर्ण भाषाओं में यदि इसके अनुवाद प्राप्त हैं तो यह कोई बड़ी बात नहीं है, क्योंकि सहस्रों वर्षों से आसेतु हिमाचल हमारे देश में इस पुस्तक की अनुपम प्रतिष्ठा है। खूबी तो यह है कि लगभग चालीस विदेशी भाषाओं में इसके अनुवाद हो चुके हैं और प्रति वर्ष लाखों की संख्या में इसका प्रकाशन होता है। सम्भवत: बाइबिल के बाद यही एक ऐसी पुस्तक है, जिसका इतनी भाषाओं में और इतनी विशाल संख्या में प्रचार और प्रसार हुआ है।
कथाओं का प्रसार
कुछ इतिहासकारों का कथन है कि सन् 1100 ई. में इसका भाषान्तर डिब्रू भाषा
में हुआ और 1570 ई. से पूर्व यह यूनानी, लैटिन, स्पेनिश, जर्मन, पुरानी
स्लैवोनिक जैक और इंगलिश भाषा में भी अनूदित हो चुका था। किन्तु एक दूसरे
प्रमाण द्वारा यह सिद्ध होता है कि सन् 550 ईस्वी के लगभग भारतवर्ष में
अमृत बूटी की खोज के लिए ईरान के बादशाह का प्रमुख राजवैद्य और मंत्री
बुर्जुए यहाँ आया था और यहाँ किसी ऐसी बूटी को न पाकर इसको ही वह अपने साथ
ईरान ले गया। वहीं पर उसने सर्वप्रथम पहलवी भाषा में इसका अनुवाद प्रस्तुत
किया और उसी के थोड़े दिनों बाद लगभग 570 ईस्वी में इसका दूसरा अनुवाद
सीरिया देश की प्राचीन भाषा में हुआ। संयोगवश बहुत दिनों तक यह अनुवाद
प्रकाश में नहीं आ सका और अन्तत: उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य भाग में कतिपय
जर्मन विद्वानों ने इसका सम्पादन और अनुवाद किया। आज तक विदेशों में
पंचतंत्र के जितने भी अनुवाद प्राप्य हैं, उन सब में यही वर्तमान संस्कृत
के पंचतंत्र के सब प्रकार से समीप है।
पहलवी भाषा से पंचतंत्र का अनुवाद आठवीं शताब्दी में अरबी भाषा में हुआ था, जो आज भी कलील: व दिमन: के रूप में प्राप्त होता है जो मूल पंचतंत्र के प्रथमतंत्र मित्रभेद के प्रमुख शृगालपात्र करटक और दमनक का एक रूपभेद मालूम पड़ता है। एक प्रकार से यह अरबी अनुवाद ही विदेशों की अन्य भाषाओं का मूलरूप है। किन्तु ज्यों-ज्यों अनुवाद का क्षेत्र विस्तृत हुआ, त्यों-त्यों मूल का स्वरूप भी विस्तृत अथवा विकृत होता गया। मूल संस्कृत के पंचतंत्र से वह दूर-दूरतर होते गए और उसका नाम भी ओझिल हो गया। फारसी में यदि उसका नामान्तर-‘अनुवार सुहेली’ हुआ तो फ्रेंच भाषा में वह ‘पिलपिली साहब की कहानियों’ के रूप में प्रसिद्ध हुआ। धरती के इतने विशाल भूखण्ड की सांस्कृतिक एवं भौगोलिक चेतना का भी उस पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ा और यह पहचानना सुगम नहीं रहा कि ये सब कहानियाँ पण्डित विष्णु शर्मा के अद्वितीय ग्रंथ पंचतंत्र की कहानियों के रूपान्तर मात्र है।
विदेशों की बातें जाने दीजिए, स्वयं अपने देश की विशाल सीमा के भीतर भी पंचतंत्र के अनेक संस्करण प्राप्त होते हैं। मूल पंचतंत्र का पता लगाना भी अब सुगम नहीं रह गया है और आज उसके अनेक संस्करण, जिनमें पाठ-परम्परा का विपुल अन्तर है, उपलब्ध हैं। इसका कारण यह रहा है कि भले ही पंचतंत्र का आदिम रूप संस्कृत में रहा हो, किन्तु मध्यवर्ती काल में इसका अनुवाद उस समय की प्रचलित लोकभाषाओं में भी हुआ था और देश के भीतर प्रचलित अन्य लोकप्रिय कथाओं के ग्रंथों ने अपने भीतर इसकी कथाओं का स्वच्छन्दता से उपयोग किया था। हमारा तात्पर्य बेताल पंचविंशतिः, शुकद्विसप्ततिः तथा सिंहासन द्वात्रिंशतिका आदि से है। इन सबमें कथाओं के उपयोग एवं लोकभाषाओं के अनुवाद के बाद इसका पुन: संस्कृत में अनुवाद हुआ है। इसे कभी एकदम पद्य के रूप में रखा गया है, तो कभी गद्य के रूप में और कभी गद्य-पद्य दोनों के रूप में। इस उलट-पलट का इतना प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था कि आज उस मूल पंचतंत्र का पता लगाना असंभव हो गया है, जिसकी रचना आरम्भ में पण्डित विष्णु शर्मा ने की होगी।
कश्मीर में इसका यदि एक पाठ उपलब्ध होता है, तो उसी से समीप नेपाल में दूसरा पाठ उपलब्ध है। दक्षिण भारत की सीमा में एक तीसरे पाठ की परम्परा विद्यमान है, जिससे अक्षरश: किसी का भी मेल नहीं है। किसी विद्वान ने अपनी पुस्तक का महत्त्व बढ़ाने के लिए पंचतंत्र की अनेक कहानियों को अपने ग्रंथ की भाषा में रखकर पचा लिया है, तो किसी दूसरे ने संस्कृत में अनुवाद प्रस्तुत करके उसके पुराने रूप को ठीक कर दिया है। पूर्व और पश्चिम की सीमा में पंचतंत्र के पाठों में वही परिवर्तन पाए जाते हैं, जो दक्षिण और उत्तर के पाठों में है। सारांश यह है कि शताब्दियों तक इस विशाल देश में पंचतंत्र की ये अमर कहानियाँ एक रूप से दूसरे रूप में और दूसरे रूप से तीसरे रूप में परिवर्तित होती रही हैं और आज उन सब बिखरे रूपों को एकत्र कर मूल रूप का पता लगाना उतना ही कठिन गहरा कार्य है, जितना हरिद्वार की गंगा की पावन धारा में पड़े हुए चिकने पत्थरों को बटोर कर उनके उद्गम अथवा आदिम रूवरूप का पता लगाना।
किन्तु इतना निश्चित है कि आज जिस पंचतंत्र का सर्वाधिक प्रचार और प्रसार है, उसका आधार पश्चिमी भारत की पाठ-परम्परा है। इस परम्परा का रूप वह सहस्र ईस्वी के लगभग स्थिर हो चुका था और यही कुछ परिवर्तनों के साथ आज निर्णय सागर, बम्बई, संस्कृत सीरीज आदि प्रकाशनों के द्वारा हमें प्राप्य है। इसका आदिम संस्कर्त्ता पूर्णभद्र था, जिसने 1199 ई. में पञ्चाख्यान ग्रंथ के रूप में सर्वत्र बिखरे हुए रूपों का एक सुव्यवस्थित संकलन किया था जो सर्वप्रथम बार एक निश्चित पाठ-परम्परा के रूप में समादृत हुआ था। पूर्णभद्र ने स्वयं लिखा है कि उसके समय में पंचतंत्र की पाठ-परम्परा बिखरी हुई थी और उसने पंचतंत्र की सब उपलब्ध सामग्री को एकत्र संकलित कर उसका जीर्णोद्धार किया और प्रत्येक अक्षर, प्रत्येक पद, प्रत्येक वाक्य, प्रत्येक श्लोक और प्रत्येक कथा का संशोधन एवं सम्पादन किया।
पूर्णभद्र की भाँति ही पाश्चात्य डॉ. एजर्टन ने भी मूल पंचतंत्र की बिखरी हुई सम्पूर्ण सामग्री का संकलन किया था और उसका वैज्ञानिक ढंग से संपादन कर एक मूल पंचतंत्र का संस्करण प्रस्तुत किया था, जिसका नाम उन्होंने (Panch-tantra Reconstructed) अर्थात् पुनर्गठित पंचतंत्र रखा था। उस संस्करण की भाषा, शब्दावली, कथनशैली, पद-विंयास सब कुछ अत्यन्त सजीव, आकर्षक और कवित्वपूर्ण है। उसका साहित्यिक सौन्दर्य सर्वश्रेष्ठ है और यह मानना पड़ता है कि पंचतंत्र के जितने स्वरूप प्राप्य हैं, उनमें वह सबसे सुन्दर और कलापूर्ण कृति है।
पहलवी भाषा से पंचतंत्र का अनुवाद आठवीं शताब्दी में अरबी भाषा में हुआ था, जो आज भी कलील: व दिमन: के रूप में प्राप्त होता है जो मूल पंचतंत्र के प्रथमतंत्र मित्रभेद के प्रमुख शृगालपात्र करटक और दमनक का एक रूपभेद मालूम पड़ता है। एक प्रकार से यह अरबी अनुवाद ही विदेशों की अन्य भाषाओं का मूलरूप है। किन्तु ज्यों-ज्यों अनुवाद का क्षेत्र विस्तृत हुआ, त्यों-त्यों मूल का स्वरूप भी विस्तृत अथवा विकृत होता गया। मूल संस्कृत के पंचतंत्र से वह दूर-दूरतर होते गए और उसका नाम भी ओझिल हो गया। फारसी में यदि उसका नामान्तर-‘अनुवार सुहेली’ हुआ तो फ्रेंच भाषा में वह ‘पिलपिली साहब की कहानियों’ के रूप में प्रसिद्ध हुआ। धरती के इतने विशाल भूखण्ड की सांस्कृतिक एवं भौगोलिक चेतना का भी उस पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ा और यह पहचानना सुगम नहीं रहा कि ये सब कहानियाँ पण्डित विष्णु शर्मा के अद्वितीय ग्रंथ पंचतंत्र की कहानियों के रूपान्तर मात्र है।
विदेशों की बातें जाने दीजिए, स्वयं अपने देश की विशाल सीमा के भीतर भी पंचतंत्र के अनेक संस्करण प्राप्त होते हैं। मूल पंचतंत्र का पता लगाना भी अब सुगम नहीं रह गया है और आज उसके अनेक संस्करण, जिनमें पाठ-परम्परा का विपुल अन्तर है, उपलब्ध हैं। इसका कारण यह रहा है कि भले ही पंचतंत्र का आदिम रूप संस्कृत में रहा हो, किन्तु मध्यवर्ती काल में इसका अनुवाद उस समय की प्रचलित लोकभाषाओं में भी हुआ था और देश के भीतर प्रचलित अन्य लोकप्रिय कथाओं के ग्रंथों ने अपने भीतर इसकी कथाओं का स्वच्छन्दता से उपयोग किया था। हमारा तात्पर्य बेताल पंचविंशतिः, शुकद्विसप्ततिः तथा सिंहासन द्वात्रिंशतिका आदि से है। इन सबमें कथाओं के उपयोग एवं लोकभाषाओं के अनुवाद के बाद इसका पुन: संस्कृत में अनुवाद हुआ है। इसे कभी एकदम पद्य के रूप में रखा गया है, तो कभी गद्य के रूप में और कभी गद्य-पद्य दोनों के रूप में। इस उलट-पलट का इतना प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था कि आज उस मूल पंचतंत्र का पता लगाना असंभव हो गया है, जिसकी रचना आरम्भ में पण्डित विष्णु शर्मा ने की होगी।
कश्मीर में इसका यदि एक पाठ उपलब्ध होता है, तो उसी से समीप नेपाल में दूसरा पाठ उपलब्ध है। दक्षिण भारत की सीमा में एक तीसरे पाठ की परम्परा विद्यमान है, जिससे अक्षरश: किसी का भी मेल नहीं है। किसी विद्वान ने अपनी पुस्तक का महत्त्व बढ़ाने के लिए पंचतंत्र की अनेक कहानियों को अपने ग्रंथ की भाषा में रखकर पचा लिया है, तो किसी दूसरे ने संस्कृत में अनुवाद प्रस्तुत करके उसके पुराने रूप को ठीक कर दिया है। पूर्व और पश्चिम की सीमा में पंचतंत्र के पाठों में वही परिवर्तन पाए जाते हैं, जो दक्षिण और उत्तर के पाठों में है। सारांश यह है कि शताब्दियों तक इस विशाल देश में पंचतंत्र की ये अमर कहानियाँ एक रूप से दूसरे रूप में और दूसरे रूप से तीसरे रूप में परिवर्तित होती रही हैं और आज उन सब बिखरे रूपों को एकत्र कर मूल रूप का पता लगाना उतना ही कठिन गहरा कार्य है, जितना हरिद्वार की गंगा की पावन धारा में पड़े हुए चिकने पत्थरों को बटोर कर उनके उद्गम अथवा आदिम रूवरूप का पता लगाना।
किन्तु इतना निश्चित है कि आज जिस पंचतंत्र का सर्वाधिक प्रचार और प्रसार है, उसका आधार पश्चिमी भारत की पाठ-परम्परा है। इस परम्परा का रूप वह सहस्र ईस्वी के लगभग स्थिर हो चुका था और यही कुछ परिवर्तनों के साथ आज निर्णय सागर, बम्बई, संस्कृत सीरीज आदि प्रकाशनों के द्वारा हमें प्राप्य है। इसका आदिम संस्कर्त्ता पूर्णभद्र था, जिसने 1199 ई. में पञ्चाख्यान ग्रंथ के रूप में सर्वत्र बिखरे हुए रूपों का एक सुव्यवस्थित संकलन किया था जो सर्वप्रथम बार एक निश्चित पाठ-परम्परा के रूप में समादृत हुआ था। पूर्णभद्र ने स्वयं लिखा है कि उसके समय में पंचतंत्र की पाठ-परम्परा बिखरी हुई थी और उसने पंचतंत्र की सब उपलब्ध सामग्री को एकत्र संकलित कर उसका जीर्णोद्धार किया और प्रत्येक अक्षर, प्रत्येक पद, प्रत्येक वाक्य, प्रत्येक श्लोक और प्रत्येक कथा का संशोधन एवं सम्पादन किया।
पूर्णभद्र की भाँति ही पाश्चात्य डॉ. एजर्टन ने भी मूल पंचतंत्र की बिखरी हुई सम्पूर्ण सामग्री का संकलन किया था और उसका वैज्ञानिक ढंग से संपादन कर एक मूल पंचतंत्र का संस्करण प्रस्तुत किया था, जिसका नाम उन्होंने (Panch-tantra Reconstructed) अर्थात् पुनर्गठित पंचतंत्र रखा था। उस संस्करण की भाषा, शब्दावली, कथनशैली, पद-विंयास सब कुछ अत्यन्त सजीव, आकर्षक और कवित्वपूर्ण है। उसका साहित्यिक सौन्दर्य सर्वश्रेष्ठ है और यह मानना पड़ता है कि पंचतंत्र के जितने स्वरूप प्राप्य हैं, उनमें वह सबसे सुन्दर और कलापूर्ण कृति है।
रचनाकार
पंचतंत्र के रचयिता पण्डित विष्णु शर्मा थे, जो अनेक विद्याओं एवं कलाओं
के पारगामी विद्वान होने के साथ ही निपुण कथा-शिल्पी, कवि तथा नीतिमान्
थे। पंचतंत्र के जितने संस्करण प्राप्त होते हैं, उन सबमें विष्णु शर्मा
का उल्लेख है। किन्तु केवल नाम के अतिरिक्त विष्णु शर्मा के सम्बन्ध में
अन्य कोई भी सामग्री प्राप्त नहीं है। पंचतंत्र की प्रस्तावना के अनुसार
दक्षिण प्रदेश में महिलारोप्य नाम का कोई नगर था, जिसका राजा अमरशक्ति न
केवल सर्वशास्त्रविशारद और दानपरायण था, प्रत्युत उसे समस्त विद्याओं और
कलाओं में भी निपुणता प्राप्त थी। इसी राजा अमरशक्ति के तीन परम मूर्ख
पुत्रों को छ: महीने के भीतर राजनीति विशारद बनाने का भार विष्णु शर्मा ने
अपने ऊपर लिया था और इसी कार्य के लिए उसने इस पंचतंत्र नामक ग्रंथ की
रचना की थी। इस संक्षिप्त इतिवृत्त के सिवा ग्रन्थकार ने प्रस्तुत ग्रंथ
में अपने लिए कहीं भूलकर भी एक पंक्ति नहीं लिखी और न किसी अन्य साधन
द्वारा ही उसके संबंध में कुछ सामग्री प्राप्त होती है। जब तक कोई विरोधी
प्रमाण उपलब्ध नहीं होता, तब तक यह मानने के लिए कोई कारण नहीं है कि
ग्रंथकार का यह नाम काल्पनिक है।
विष्णु शर्मा का जीवनचरित हमें भले ही न ज्ञात हो, किन्तु उसके व्यक्तित्व पर प्रकाश डालने वाली विपुल सामग्री पंचतंत्र में विद्यमान है। यह निश्चित है कि वह एक परम बुद्धिमान, पण्डित, निर्लोभ, तथा स्वाभिमानी स्मार्त ब्राह्मण थे, जैसा कि उन्होंने ग्रंथारंभ में ही ब्रह्मा, शिव, कार्तिकेय, विष्णु, वरुण, यमराज, अग्नि, इन्द्र, कुबेर, चन्द्रमा, सूर्य, सरस्वती, अश्विनी कुमार, चण्डिका, प्रभृति आर्य देवताओं को तथा आर्यों की परम्परा के ही अनुसार समुद्र, नदी, तीर्थस्थल, वेद, यज्ञादि को नमस्कार करते हैं और फिर मनु, वृहस्पति, शुक्र, पराशर, व्यास एवं चाणक्य प्रभृति नीति एवं आचारशास्त्र के रचयिताओं की वंदना करते हैं। इससे यही सिद्ध होता है कि वह कोई बौद्ध या जैन नहीं थे।
विष्णु शर्मा का स्वभाव अत्यन्त उदार, परदुःखकातर तथा स्वाभिमानी था, किन्तु उन्हें छल-छिद्र एवं दम्भ-पाखण्ड की भी पूरी जानकारी थी। मानव प्रकृति के सभी रहस्यों की बात तो जाने दीजिए, वह पशु-पक्षियों तथा कीट-पतंगों के स्वभाव एवं जीवन के भी पारखी थे। यद्यपि उनके इस प्रकार के पात्रों में मानव जीवन की घटनाओं का ही गुम्फन हुआ है। तथापि उनके सहज स्वभाव एवं प्रकृति का चित्रण अत्यन्त सूक्ष्म तथा मनोरंजक है। वह न केवल समग्र शास्त्रों के ही पण्डित थे, वरन् सांसारिक व्यवहारों का भी उन्हें प्रगाढ़ अनुभव था। कामशास्त्र और धर्मशास्त्र से लेकर आयुर्वेद और ज्योतिष तक का परिचय तो उन्हें था ही, रणनीति और कूटनीति में भी वह परम निपुण थे। यज्ञागादि एवं सद्धर्म कथाओं के वह प्रेमी थे तथा बौद्ध एवं जैन मत के प्रति उनका दृष्टिकोण अत्यन्त उदार था। कुछ सामाजिक रूढ़ियाँ भी उनमें थी, किन्तु उस समय की परिस्थिति के अनुकूल वे क्षम्य थीं। जैसे स्त्रियों के प्रति उनका दृष्टिकोण बहुत बहुत ही एकांगी था। वे स्त्रियों का विश्वास कभी न करने की चेतावनी यद्यपि बार-बार देते है, तथापि ऐसा लगता है कि उन्हें पूरा सन्तोष नहीं था। सन्मित्रों के लिए वह सर्वस्व अर्पण करने को कहते हैं और जब कहीं थोड़ा भी अवसर उन्हें प्राप्त होता है, मित्रों के प्रति सहज प्रेम की कोई न कोई सदुक्ति वह सुना ही देते हैं। यही सतत् जागरूरकता की स्थिति शत्रुओं के प्रति भी उनकी है। अपने शत्रुओं के वह प्रचण्ड बैरी थे और अनेक छल-छिद्रपूर्ण उपायों द्वारा भी उनके विनाश का उपदेश करते हुए उन्हें थकावट नहीं होती थी।
यद्यपि वह ब्राह्मण थे, किन्तु उनके स्वभाव की विशेषताओं से ऐसा स्पष्ट हो जाता है कि वह चाणक्य के दूसरे अवतार थे। शास्त्र चिन्ता के साथ-साथ उन्हें शस्त्र-चिन्ता भी थी और व्यक्तिगत स्वार्थों की कोई अपेक्षा न कर वह सर्वदा सर्वत्र समष्टि अथवा समाज-हित-चिन्ता में तत्पर रहते थे अपने अनेक पात्रों में उन्होंने प्रायः सौन्दर्य एवं सौमनस्य की सृष्टि की है। यद्यपि उनके खल पात्र भी हैं, जो उनकी अनेक प्रवृत्तियों की जानकारी होने की सूचना मात्र देते हैं, तथापि यह ध्वनित होता है कि वह श्रृंगारी एवं रसिक तबियत के पुरुष थे। जहाँ कहीं उन्हें अवसर लगा है कामक्रीड़ा के वर्णन में भी प्रवृत्त हो गए हैं। उनकी दानशीलता और निर्लोभिता भी उच्चकोटि की थी। सर्वस्व समर्पण की उच्च आकांक्षा में उनके पात्रों का जीवन बीतता है और निर्लोभ बने रहने को भी अनेक प्रसंग वर्णित है, किन्तु मानव-जीवन में धन-सम्पत्ति एवं ऐश्वर्य पराक्रम की चिंता भी उन्हें थी। एक अटूट साहसी तथा देश-विदेशों में घूमे हुए वह एक बहुश्रुत व्यक्ति थे, तथापि विद्या बेंचकर धन अर्जन करना भी उन्हें इष्ट नहीं था। कठिन से कठिन विपत्तियों में उनका धैर्य समाप्त नहीं होता था और सहस्रों विघ्नों से भी पीछे हटने वाले नहीं थे। इसी प्रकार वाणिज्य-व्यवसाय एवं कृषि कार्यों में भी उनकी विशेष अभिरुचि थी। संगीत एवं चित्रकला की निपुणता भी उनमें थी एवं चोरी-जारी की कुप्रवृत्तियों का भी उन्हें पूरा ज्ञान था। संक्षेप में तात्पर्य यह है कि वह एक पूरे संसारी पुरुष थे। संसार में आकर उसकी सम्पूर्ण सुख-सुविधाओं का उन्होंने लाभ उठाया था और परलोक की दुश्चिन्ता में इस लोक से उपेक्षित रहने वाले पुराने ऋषियों-मुनियों जैसा जीवन उन्हें पसंद नहीं था। लौकिक जीवन को स्वर्गोपम बनाकर भोगने की कला उन्हें ज्ञात थी और उस कला का उन्होंने पूरा परिचय भी दिया है।
विष्णु शर्मा का जीवनचरित हमें भले ही न ज्ञात हो, किन्तु उसके व्यक्तित्व पर प्रकाश डालने वाली विपुल सामग्री पंचतंत्र में विद्यमान है। यह निश्चित है कि वह एक परम बुद्धिमान, पण्डित, निर्लोभ, तथा स्वाभिमानी स्मार्त ब्राह्मण थे, जैसा कि उन्होंने ग्रंथारंभ में ही ब्रह्मा, शिव, कार्तिकेय, विष्णु, वरुण, यमराज, अग्नि, इन्द्र, कुबेर, चन्द्रमा, सूर्य, सरस्वती, अश्विनी कुमार, चण्डिका, प्रभृति आर्य देवताओं को तथा आर्यों की परम्परा के ही अनुसार समुद्र, नदी, तीर्थस्थल, वेद, यज्ञादि को नमस्कार करते हैं और फिर मनु, वृहस्पति, शुक्र, पराशर, व्यास एवं चाणक्य प्रभृति नीति एवं आचारशास्त्र के रचयिताओं की वंदना करते हैं। इससे यही सिद्ध होता है कि वह कोई बौद्ध या जैन नहीं थे।
विष्णु शर्मा का स्वभाव अत्यन्त उदार, परदुःखकातर तथा स्वाभिमानी था, किन्तु उन्हें छल-छिद्र एवं दम्भ-पाखण्ड की भी पूरी जानकारी थी। मानव प्रकृति के सभी रहस्यों की बात तो जाने दीजिए, वह पशु-पक्षियों तथा कीट-पतंगों के स्वभाव एवं जीवन के भी पारखी थे। यद्यपि उनके इस प्रकार के पात्रों में मानव जीवन की घटनाओं का ही गुम्फन हुआ है। तथापि उनके सहज स्वभाव एवं प्रकृति का चित्रण अत्यन्त सूक्ष्म तथा मनोरंजक है। वह न केवल समग्र शास्त्रों के ही पण्डित थे, वरन् सांसारिक व्यवहारों का भी उन्हें प्रगाढ़ अनुभव था। कामशास्त्र और धर्मशास्त्र से लेकर आयुर्वेद और ज्योतिष तक का परिचय तो उन्हें था ही, रणनीति और कूटनीति में भी वह परम निपुण थे। यज्ञागादि एवं सद्धर्म कथाओं के वह प्रेमी थे तथा बौद्ध एवं जैन मत के प्रति उनका दृष्टिकोण अत्यन्त उदार था। कुछ सामाजिक रूढ़ियाँ भी उनमें थी, किन्तु उस समय की परिस्थिति के अनुकूल वे क्षम्य थीं। जैसे स्त्रियों के प्रति उनका दृष्टिकोण बहुत बहुत ही एकांगी था। वे स्त्रियों का विश्वास कभी न करने की चेतावनी यद्यपि बार-बार देते है, तथापि ऐसा लगता है कि उन्हें पूरा सन्तोष नहीं था। सन्मित्रों के लिए वह सर्वस्व अर्पण करने को कहते हैं और जब कहीं थोड़ा भी अवसर उन्हें प्राप्त होता है, मित्रों के प्रति सहज प्रेम की कोई न कोई सदुक्ति वह सुना ही देते हैं। यही सतत् जागरूरकता की स्थिति शत्रुओं के प्रति भी उनकी है। अपने शत्रुओं के वह प्रचण्ड बैरी थे और अनेक छल-छिद्रपूर्ण उपायों द्वारा भी उनके विनाश का उपदेश करते हुए उन्हें थकावट नहीं होती थी।
यद्यपि वह ब्राह्मण थे, किन्तु उनके स्वभाव की विशेषताओं से ऐसा स्पष्ट हो जाता है कि वह चाणक्य के दूसरे अवतार थे। शास्त्र चिन्ता के साथ-साथ उन्हें शस्त्र-चिन्ता भी थी और व्यक्तिगत स्वार्थों की कोई अपेक्षा न कर वह सर्वदा सर्वत्र समष्टि अथवा समाज-हित-चिन्ता में तत्पर रहते थे अपने अनेक पात्रों में उन्होंने प्रायः सौन्दर्य एवं सौमनस्य की सृष्टि की है। यद्यपि उनके खल पात्र भी हैं, जो उनकी अनेक प्रवृत्तियों की जानकारी होने की सूचना मात्र देते हैं, तथापि यह ध्वनित होता है कि वह श्रृंगारी एवं रसिक तबियत के पुरुष थे। जहाँ कहीं उन्हें अवसर लगा है कामक्रीड़ा के वर्णन में भी प्रवृत्त हो गए हैं। उनकी दानशीलता और निर्लोभिता भी उच्चकोटि की थी। सर्वस्व समर्पण की उच्च आकांक्षा में उनके पात्रों का जीवन बीतता है और निर्लोभ बने रहने को भी अनेक प्रसंग वर्णित है, किन्तु मानव-जीवन में धन-सम्पत्ति एवं ऐश्वर्य पराक्रम की चिंता भी उन्हें थी। एक अटूट साहसी तथा देश-विदेशों में घूमे हुए वह एक बहुश्रुत व्यक्ति थे, तथापि विद्या बेंचकर धन अर्जन करना भी उन्हें इष्ट नहीं था। कठिन से कठिन विपत्तियों में उनका धैर्य समाप्त नहीं होता था और सहस्रों विघ्नों से भी पीछे हटने वाले नहीं थे। इसी प्रकार वाणिज्य-व्यवसाय एवं कृषि कार्यों में भी उनकी विशेष अभिरुचि थी। संगीत एवं चित्रकला की निपुणता भी उनमें थी एवं चोरी-जारी की कुप्रवृत्तियों का भी उन्हें पूरा ज्ञान था। संक्षेप में तात्पर्य यह है कि वह एक पूरे संसारी पुरुष थे। संसार में आकर उसकी सम्पूर्ण सुख-सुविधाओं का उन्होंने लाभ उठाया था और परलोक की दुश्चिन्ता में इस लोक से उपेक्षित रहने वाले पुराने ऋषियों-मुनियों जैसा जीवन उन्हें पसंद नहीं था। लौकिक जीवन को स्वर्गोपम बनाकर भोगने की कला उन्हें ज्ञात थी और उस कला का उन्होंने पूरा परिचय भी दिया है।
रचना-स्थल
पंचतंत्र की रचना विष्णु शर्मा ने कहाँ रहकर की, इसका भी अनुमान ही किया
जा सकता हैं, क्योंकि कहीं भी इसका कोई उल्लेख नहीं है। प्रायः अनेक
कहानियों में उन्होंने दक्षिण जनपदों की एवं पर्वतों की चर्चा करते हुए
उसका विशेषण ‘दक्षिण’ शब्द से दिया है। इससे यह
अनुमान होता
है कि वह उत्तरी भारत के निवासी थे। मि. हर्टल का अनुमान है कि पंचतंत्र
का निर्माण कश्मीर प्रदेश में हुआ था; क्योंकि पंचतंत्र की असली प्रति में
शेर और हाथी का वर्णन नहीं है। वर्तमान संस्करण में तो शेरों की सभी पशुओं
से अधिक चर्चा है, जबकि ऊँट का वर्णन अनेक अवसरों पर आया है।
किन्तु इस अनुमान के विरोध में भी अनेक तर्क है। यदि वह कश्मीरी होते तो हिमालय एवं उत्तरी भारत के किसी-न-किसी पुराने नगर की चर्चा करते, जबकि ऐसा नहीं हुआ है। हिमालय का नाम आया अवश्य है एकाध बार, किन्तु वह नाममात्र ही है। उज्जैन के महाकालेश्वर की चर्चा उन्होंने अवश्य की है और क्षिप्रा के पावन जल की भी प्रशंसा की है, किन्तु उतने ही से कोई निश्चित अन्दाज नहीं लगता कि उन्होंने कहाँ रहकर पंचतंत्र की रचना की ? ग्रन्थारम्भ का यदि यह सन्दर्भ सत्य माना जाए कि विष्णु शर्मा ने दक्षिणात्य जनपद महिलारोप्य के राजा अमरशक्ति के पुत्रों के लिए इसकी रचना की तो यह युक्तिसंगत लगता है कि पंचतंत्र की रचना भी उन्होंने दक्षिण में ही रहकर की होगी, क्योंकि कथामुख में इस बात की भी चर्चा है कि राजा ने विष्णु शर्मा को अपनी राजधानी में बुला भेजा था और उस समय उनकी अवस्था लगभग अस्सी वर्ष की थी। यातायात के वर्तमान साधन उन दिनों इतने उन्नत और सुविधाजनक नहीं थे कि एक अस्सी वर्ष का बूढ़ा कोई लम्बी यात्रा कर सकता ? फलत: यह निष्कर्ष निकलाना कि वे दक्षिणी ब्राह्मण थे और वहीं रहकर उन्होंने पंचतंत्र की रचना भी की, कोई अनुचित न होगा। ऋष्यमूक, गोदावरी आदि के वर्णनों का भी फलितार्थ यही निकलता है।
किन्तु इस अनुमान के विरोध में भी अनेक तर्क है। यदि वह कश्मीरी होते तो हिमालय एवं उत्तरी भारत के किसी-न-किसी पुराने नगर की चर्चा करते, जबकि ऐसा नहीं हुआ है। हिमालय का नाम आया अवश्य है एकाध बार, किन्तु वह नाममात्र ही है। उज्जैन के महाकालेश्वर की चर्चा उन्होंने अवश्य की है और क्षिप्रा के पावन जल की भी प्रशंसा की है, किन्तु उतने ही से कोई निश्चित अन्दाज नहीं लगता कि उन्होंने कहाँ रहकर पंचतंत्र की रचना की ? ग्रन्थारम्भ का यदि यह सन्दर्भ सत्य माना जाए कि विष्णु शर्मा ने दक्षिणात्य जनपद महिलारोप्य के राजा अमरशक्ति के पुत्रों के लिए इसकी रचना की तो यह युक्तिसंगत लगता है कि पंचतंत्र की रचना भी उन्होंने दक्षिण में ही रहकर की होगी, क्योंकि कथामुख में इस बात की भी चर्चा है कि राजा ने विष्णु शर्मा को अपनी राजधानी में बुला भेजा था और उस समय उनकी अवस्था लगभग अस्सी वर्ष की थी। यातायात के वर्तमान साधन उन दिनों इतने उन्नत और सुविधाजनक नहीं थे कि एक अस्सी वर्ष का बूढ़ा कोई लम्बी यात्रा कर सकता ? फलत: यह निष्कर्ष निकलाना कि वे दक्षिणी ब्राह्मण थे और वहीं रहकर उन्होंने पंचतंत्र की रचना भी की, कोई अनुचित न होगा। ऋष्यमूक, गोदावरी आदि के वर्णनों का भी फलितार्थ यही निकलता है।
रचना-काल
इसी प्रकार पंचतंत्र के रचनाकाल का निश्चय करना भी एक जटिल समस्या है। कोई
ठीक समय तो बताया ही नहीं जा सकता। हां, यह अवश्य कहा जा सकता है कि
चन्द्रगुप्त मौर्य (चाणक्य के समय) के राज्य काल के कुछ अन्तर ही इसका
प्रणयन हुआ होगा। साथ ही यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि ईसा की छठीं
शताब्दी से पूर्व ही यह ग्रंथ आजकल के गोस्वामी तुलसीदास रचित रामचरितमानस
की भाँति सर्वत्र प्रसिद्ध हो चुका था, जबकि इसकी प्रथम विदेश यात्रा हुई
होगी। इस प्रकार ईसा की प्रथम अथवा द्वितीय शताब्दी के आसपास इसकी रचना का
अनुमान पुष्ट होता है, क्योंकि इतनी अधिक लोकप्रसिद्धि और प्रशंसा को
प्राप्त करने के लिए अवश्य ही इसे 300, 400 वर्षों की अवधि मिलनी चाहिए।
भाषा और शैली
पंचतंत्र की आरम्भिक भाषा संस्कृति ही थी, इसमें तो किसी को सन्देह की
गुंजाइश नहीं होनी चाहिए, क्योंकि जिस समय की यह रचना है, उस समय संस्कृत
को छोड़कर किसी अन्य भाषा में ग्रंथ लिखने की आवश्यकता थी भी नहीं और
विशेष रूप से ऐसे ब्राह्मण पण्डित के लिए तो और भी नहीं थी, जो आर्य
मान्यताओं का अविचल पुजारी रहा। किन्तु इसमें कुछ सन्देह तो अवश्य है ही
कि आज के पंचतंत्र की जो भाषा है, वही विष्णु शर्मा रचित पंचतंत्र की भी
भाषा रही होगी; क्योंकि पंचतंत्र के पाठ-भेदों एवं स्वरूपों के सम्बन्ध
में ऊपर जिन प्रसंगों की चर्चा की गई है, उन्हें देखते हुए यह मानना पड़ता
है कि इसकी कथाओं के साथ-साथ इसकी भाषा में भी मध्यकाल में बीच-बीच में
कुछ परिवर्तन परिवर्द्धन भी होते रहे होंगे। किन्तु जहाँ तक उपलब्ध
संस्करणों के पाठ का प्रश्न है, वह तो जैसा कि पहले बताया जा चुका है,
पश्चिम भारतीय संस्करण की पुरानी भाषा ही है और वह आज भी सरल संस्कृत में
उपलब्ध है।
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लोगों की राय
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